धरा की पुकार

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 बैठा था में शांत मौन, कि  धरा एकाएक  बोली,

शांत थी कितनी पहले,अब लगे विकराल बोली।


 
क्या मूर्खो सा बैठा हैं,क्या न देगा बलिदान मुझे,

खिझ कर प्रतिवाद किया, इसका हक क्या हैं तुझे।

व्यंग्य सा उसने परिहास किया, तू पूछ रहा हैं मुझसे हक,

रे भूल गया आंचल में मेरे पलकर, होता राजा और रंक।

क्या चिर ह्रदय मैंने तूझको को खाद्यानों से बलिष्ट किया,

अब हक पूछता हैं, क्या तुझे पालकर मैंने अनिष्ट किया।

हाँ हक हैं मुझे तेरे रक्त के प्रत्येक कतरे का, क्या न देगा ?

लाई थी में तुझे बँधाने विजय की शौर्य पाग, क्या न लेगा?

आत्मा स्वयं की अब  लगी मुझे करने जगभर में तरिस्कृत,

बोल रहा ह्रदय मेरा मुझसे क्यों ना करलू यह महासंग्राम स्वीकृत।

चीख उठा गहन तिमिर में, है!मातृभोम मुझे क्षमा करो,

टूटती वाणी को दृढ़ करो,इसमें और अधिक औज भरो।

आशीष गुंजीत हुआ मातृभूमि का, विजयी हो!तेरी वीर,

प्रण करो रक्षा की मेरी, ह्रदय धरो तुम सागर -शून्य सा धीर।

अब बहुत हुई प्रतीक्षा और परीक्षा, अब संघर्ष रन में आता हूँ,

अपने दुखड़े तो बहुत रोये, अब देश के गौरव गाता हूँ।

हिमगिरी से हिन्द सागर की तराई तक, अब विजय पवन बहती हैं,

हो विजय, हो विजय, हाँ! हो विजय,देश की माटी कहती हैं।

-सुरेंद्र सिंह रावत

 महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय

अजमेर ( राजस्थान)

 

 

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