थोड़ा सा सम्मान

सृजन
0

 मैं बस तुम से और क्या चाहती हूं

बस थोड़ा सा सम्मान चाहती हूं

जब छोड़ देते हो तुम

गीला तौलिया बिस्तर पर

कर जाते हो सारे घर को

जब अस्त व्यस्त

तब उसे पहला सा संवार देती हूं

मैं तुम पर कोई एहसान नहीं करती

पर बदले में थोड़ा सा सम्मान चाहती हूं।

करती ही क्या हो तुम दिन भर

तुम्हारे इन्हीं तानों से टूट जाती हूं

मेरी मेहनत तुम्हे क्यों नहीं आती नज़र

जानती हूं तुम पर कोई एहसान नहीं करती

पर बदले में थोड़ा सा सम्मान चाहती हूं ।

जब भी होता है परिवार का

कोई सदस्य बीमार

भूल कर अपने दिन और रात 

सारा दिन सबकी सेवाटहल करती हूं

मानती हूं, तुम पर कोई एहसान नहीं करती

पर बदले में थोड़ा सा सम्मान चाहती हूं ।

जब कभी देते हो तुम कुछ उपहार

कभी सुंदर सी साड़ी, कभी सोने का हार

पर मैं यह सब कब चाहती हूं

मैं तो बस तुम्हारा प्यार चाहती हुं

और थोड़ा सा सम्मान चाहती हुं ।

जब तुम आते हो गुस्से में

और कह देते हो

चली जाओ अपने पिता के घर

तब छलनी हो जाता है आत्मसम्मान मेरा

और जाती हूं पूरी तरह बिखर

फिर भी मर्यादा में बंधी

छोड़ नहीं पाती हूं यह घर

जानती हूं नहीं करती तुम पर कोई एहसान

पर कुछ ज्यादा तो नहीं, थोड़ा सा सम्मान चाहती हूं ।

 

ऋतु बंसल

दिल्ली 

 

 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!