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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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मंगलवार, 1 जून 2021

रानी का बलिदान

 पात्र परिचय


    रतन सिंह -सलुंबर गढ़ का जागीरदार और मेवाड़ का सामंत

श्री धर पंडित -मेवाड़ महाराणा राज सिंह का दूत

हाड़ी रानी संहल कँवर -रतन सिंह की नववधू और बूँदी की राजकुमारी

सुधामती -रानी की प्रिय दासी व सखी

कुंवरी दिया -रतन सिंह की बहिन,,

अन्य- सामंत 1, सामंत 2, सामंत 3

 

( प्रथम दृश्य )

संध्या का समय...

( बादलों की गड़गड़ाहट व हल्की वृष्टि की फुहारों की आवाज के साथ पर्दा उठता है, खुले श्याम गगन का दृश्य, गढ़ की ऊपरी छत,शांत वातावरण में एकाएक कुंवरी दिया का प्रवेश )

दिया -    (आसमान की ओर हर्ष से देखकर ) अरे इस ग्रीष्म  की रात में यह ठंडी फुहारे,हाय! मेघ गर्जन,क्या यह बरसात भाईसा के ब्याह का उत्सव मना रही है,? ( हाशिये से मंच के बीचो बीच आकर ) आह! अद्भुत, देह पर गिरने वाला यह देवलोक का जल दिन  भर की थकान व तपीश शांत कर रहा है।

(दिया उल्लास से चक्कर खाती है हाथों से अभिनय कर घूमर की सामान्य मुद्राएं बनाती हुई बरसात की और तीव्र गर्जना सँग वह और तीव्रता से नाचती है )दिया -  ( गाते हुए नाचती है )

"मेवाड़ धरा रे मंगरा मंगरा

छायो सावन फागुन में

तालरिया री पालां छिलकी

आयो सावन फागुन में " (उसके नाचने के साथ ही पर्दा गिरता है)

(द्वितीय दृश्य )

( सुसज्जित दरबार का दृश्य, वही समय,मध्य भाग में गद्दी पर रावत रतन सिंह रौबीली मुस्कान के साथ बैठा है, गद्दी के दोनों ओर मखमली जाजम व मोटे तकियों  के सहारे सामंत गण अपनी पीठ दिखाएं बैठे हैं रावत रतन सिंह ख़ामोशी भंग करता है )रतन सिंह -( मुस्कुराते हुए) मैं आप सभी मेवाड़ी सरदारों जागीरदारों और राव -रावतों का हृदय से आभारी हूं, आपने स्नेह से परिपूर्ण जो उपहार दिए हैं वे वाकई अमूल्य है.....।

सामंत 1- हुकुम यह आपका बड़प्पन है जो जागीरदारों के सिरमौर होते हुए भी आप हमारे उपहारों को इतना महत्व दे रहे हैं, आप तो एकलिंग के दीवान महाराणा राज सिंह सिसोदिया  के बाद दूसरे महत्वपूर्ण मेवाड़ी है।

सामंत2 - हां हुकुम और हमें संतोष तो इस बात का है कि बूंदी नरेश ने अपनी इतनी मनुहार की कि हमें तो लगा ही नहीं वह बूंदी के नरेश भी है....।

रतन सिंह - (गंभीर होकर ) हां सामंत हम भी सोचते थे कि एक सरदारपति से प्रेम में अपनी पुत्री के हट के आगे झुकने वाले नरेश का व्यवहार शायद असहज हो किंतु उन्होंने हमारा सम्मान कर हाडा वंश की मर्यादा प्रदर्शित की है...।

सामंत 3- हमारा भाग्य हुक्म की साक्षात भवानी का स्वरूप समझे जाने वाली हाड़ा वंशीय कन्या के कदम चुण्डावतों के सलूंबर गढ़ में पड़े हैं...।

( रतन सिंह कुछ नहीं बोला बस मंद गति से मुस्कुराया तभी एकाएक तीव्रता से एक संतरी का प्रवेश उसके साथ एक मेवाड़ी दूत, दोनों आकर शीश नवाते हैं )

संतरी - माफी चाहता हूं हुकुम लेकिन पंडित जी को अत्यधिक जल्दी होने के कारण बगैर घोषणा के आना पड़ा ( यह कहकर संतरी बाहर निकल जाता है, रतन सिंह पंडित जी को ध्यान से देखते हैं )

रतन सिंह - शायद आप मेवाड़पति के दीवान श्रीधर पंडित है,,

पंडित - आप सही पहचाने रावताधीपति,

रतन सिंह -(उल्लास से )ओह, आइए आइए बिराजे, इधर आइए सब कुशल तो है मेवाड़ में ( एक विशिष्ट स्थान की ओर इशारा करते हुए )

पंडित -  महाराज   बैठने का समय नहीं है मैं बेहद ही महत्वपूर्ण संदेश लाया हूं।

रतनसिंह -(मन में,) मैंने तो सोचा कि शायद मेवाड़ पति ने मुझे विवाह शुभकामनाएं भेजी होगी ( प्रकट) हां कहिए पंडित जी....।

पंडित -में महाराणा का संदेश पढ़ता हूँ (मौहर पत्र खोल कर पढ़ता हैं ).

" सलूंबर गढ़ के रावत चुंडावत रतन सिंह

   जय एकलिंग जी री,

रतन सिंह आज मेवाड़ पर पड़ी विपत्ति आन पड़ी है, मैंने किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति का मुगलों से शील बचाया। इससे क्रोधित कुटिल बादशाह औरंगजेब ने हमारे समक्ष बेतूकी शर्ते रखी जिन्हें स्वीकारना हरमेवाड़ी राणा के लिए घृणित होगा, अंत हमने इसे अस्वीकार कर दिया अब मुगलों ने मेवाड़ धरा पर चढ़ाई की है मे लज्जित हूं कि मैं न तो आपके विवाह में आ पाया और अब शुभकामना संदेश की बजाइए युद्ध आमंत्रण भेज रहा हूं, मैं विवश हूं,आपके पास अपने विवेक से निर्णय लेने की पूरी शक्ति है मां भवानी आप का नव बंधन अमर रखें

मेवाड़ महाराणा राज सिंह सिसोदिया  । "

( रतन सिंह का चेहरा भाविन हो गया उनका हाथ खड़क पर जम गया  )

रतन सिंह -(श्री धर को सम्बोधित कर  ) लगता है मुगल में दिन भूल गए जब अरावली में पानी -पानी करते बिलखे थे,पंडित जी हम आपके साथ ही ससैन्य चलेंगे ।

पंडित -(मन में) हाय आज तो इनकी 'सोगरात्रि ' है मैं भी कैसा दुः संदेश लाया ईश्वर मुझे माफ करें, माफ करना ओं हाडी रानी( प्रकट  ) अति उत्तम महाराज।

(पर्दे के गिरने के साथ दृश्य समाप्त)

 ( तृतीय दृश्य  )

( गहन रात्रि का समय, सुसज्जित कक्ष, खिड़की से निकलते पूर्णचंद्र को सहल कवर हाड़ी रानी  तक रही है, अलंकारों से सृजित  उसकी देह चंद्रमा की आभा से दमक रही है वह सलूंबर नगर पर दृष्टि दौडाने लगी,अद्भुत सोम सुधा में डूबा यह नगर,तभी उसकी एक सखी का तीव्रता से प्रवेश)

सुधामती - ठकुराइन सा की जय हो  ( उसका चेहरा पीला पड़ा हुआ है चेहरे पर पसीना स्पष्ट है )

हाड़ी रानी - अरे सुधा  तुम इतनी क्यों घबराए हो (पास आकर) अरे तुम्हारे माथे पर यह पसीना.।( सुधामती ने अपने हाथों को हाड़ी रानी के हाथों पर रख दिया )

सुधामती - बुरा संदेश है, संहल,औरंगजेब ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया है और सलूंबर पति युद्ध हेतु जा रहे हैं

(हाडी रानी का मुख एक दफा कांति हिन हो गया, शीघ्र ही चेहरे पर मुस्कान कांति भरती है)

हाड़ी रानी - यह तो गर्व है हमारा सुधा की प्रियवर किसी अबला की लाज बचाने वाले संग्राम में सम्मिलित हो रहे हैं, ( तभी एकाएक खाँसते हुए रतन सिंह का प्रवेश, सुधा लंबा घुंघट तान निकल जाती है हाड़ी रानी सर पर चुनरी डाल देती है )

( कुछ देर रतन सिंह लगातार रानी को तकता रहता है फिर निकट आकर..)

रतनसिंह - हमें रणचंडी ने बुलाया है प्रिय,

हाड़ी रानी - हमारा सौभाग्य है आर्य,,

( रतन सिंह लंबी सांस छोड़ता है )

रतन सिंह - तिलक कीजिए हमारा ठकुराइन, (हाड़ी रानी घुंघट हटा देती है और कमरे के हाशिए में लिप्त दीपक तले चमकती थाली लेकर आती है पहले रतन सिंह की आरती उतारती है फिर तिलक लगाती है और मुट्ठी भर अक्षत उसपर उछाल देती हैं)

रतनसिंह - आज हमारी 'सोगरात्रि ' है प्रिय, मेरी इच्छा आपको कोई भेट देने की है, मांगीए....

हाड़ी रानी - (कुछ सोचती है) हमें आपकी यह दूसरी वाली (इशारा कर) तलवार दे दीजिए आर्य।

( रतन सिंह बगैर प्रतिवाद किए सुसज्जित अपनी दूसरी तलवार हाडी रानी के हाथों में रख देता है, और एक बार पुनः रानी के सुदीप्त आगामीयी मुखमंडल को तक कर जाने के लिए मुड़ता है )

हाडी रानी - जय एकलिंग जी री हुकम,

( जाते हुए रतन सिंह की आवाज में नेपथ्य से गूंजती हैं, जय एकलिंग जी री, हाड़ी रानी दौड़कर मंच के आंतरिक भाग में जाकर झरोखे से झांकने का अभिनय करती है )

हाडी रानी - हाय वह जा रहे हैं (सोचकर ) किंतु में विलाप क्यों करती हूं यह हमारा सौभाग्य है क्षत्राणी  तो हंसकर स्वामी को रण में भेजती है..

(अपने हाथों में बंधे कांकन डोरों को देखती हैं फिर सर पर बंधे मोड़ को छुती हैं, तभी एकाएक सुधा का कक्ष में प्रवेश )

सुधा - ठकुरानी सा बाहर महाराज का दूत आया है,

हाड़ी रानी-( आश्चर्य से ) क्यों कोई संदेश है,,

सुधा-( धीरे से ) महाराज ने युद्ध में आप के स्मरण हेतु एक सेनाणी( स्मृति चिन्ह ) मंगाई है।

हाडी रानी - (चेहरे पर संताप व विलाप का मिश्रित भाव लाकर ) हाय रे मेरा भाग्य, क्या ने मिथ्या हूँ प्रियवर पर गर्व करती थी( और तेज) उस सैनिक की आसक्ति तो इस देह पर है, (घृणा से) दूंगी ऐसी सैनाणी दूंगी की जग याद करेगा, दूंगी सैनाणी दूंगी,। ( बारंबार गूंजती इस आवाज के साथ दृश्य समाप्त होता है )

( अंतिम दृश्य)

( गढ़ के बाहरी द्वार का दृश्य, रतन सिंह विचलित सा टहल रहा है,हाथों में दमकता खड़क,कभी  गढ़ की ओर देखता तो कभी मेवाड़ मार्ग की ओर, तभी मंद पद ध्वनि आलोक में गूंजती है,बड़ी सी थाली में कपड़े तले कुछ ढके हुए दूत का मंच में प्रवेश )

रतन सिंह -(दूत के पास तीव्रता से आकर) बड़ी देर लगाई रे दूत, शीघ्र ला क्या सेनाणी भेजी है प्रिया ने( निकट आकर ) अरे तू कुछ बोलता क्यों नहीं (थाली की ओर हाथ बढ़ाकर) क्या इसमें है सैनानी ( कपड़ा हटाता है, तभी थाली में हाड़ी रानी का कटा हुआ रक्त रंजित मस्तिष्क देख लड़खड़ा कर गिर जाता है )

रतन सिंह -(पड़े पड़े बिलखता हैं ) हाय रे मेरा मोह उस क्षत्राणी ने अपने प्रिय को राजधर्म सिखाने के लिए बलिदान दिया ( लड़खड़ा कर उठता है) अच्छा तो मेरी तलवार काम आ ही गई ( सर को हाथों से उठा कर चीखता है ) तुम्हारे पास अवश्य आऊंगा मैं क्षत्राणी पर मुगलों को मातृभूमि से खदेड़ कर, जिसके लिए तुम ने बलिदान दिया,,।

( रतन सिंह हाड़ी रानी के कटे हुए सर को अपने गले में बांध लेता है, और जोर से चीखता है जय भवानी,जय एकलिंग जी की, पर्दे के पीछे से सहस्त्र कंठो से यहीं प्रतिध्वनि निकलती हैं, रतन सिंह यही घोष बारंबार करता हुआ मंच से निकल जाता है, मंच पर हल्का तिमिर पड़ता है, पर्दे के पीछे से सैकड़ों तलवारों की खनखनाहट,सैनिकों की त्राहि,घोड़ों की टापे गूंजती है,तभी गायन होता है...)

" धन धन जिओ म्हारी छत्र ए रानी

   क्या तूने अजब दियो बलिदान,

राजधर्म की खातिर हा राजधर्म खातिर

   अपने ही तज दिए तूने प्राण,,

हाँ टूट पड़ा प्रियवर तेरा

बन महाकाल शत्रु दल पर,

सहस्त्र कंठो से विजयीगाथा बोले

तेरा प्रियवर भारी हर बल पर,,

हाँ क्या लिखा इतिहास तूने

चूड़ावत ने मांगी थी सैनाणी,

मातृभोम  की रक्षा हेतु

सर काट दे दियो क्षत्राणी,सर काट दे दियो क्षत्राणी,। "

                 (धीरे धीरे पर्दा गिरता हैं )

सुरेंद्र सिंह रावत

विद्यार्थी -कला तृतीय वर्ष

महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर (राजस्थान )

 

 

 

 

 

 

 

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