कोरोना काल जैसा कि नाम से सभी परिचित है । वह समय ही ऐसा था जो लोगों के लिए संघर्ष का काल था । मैं भी शहर के किराए के मकान को छोड़कर गाँव मायके वाले मम्मी के घर आ गई । कुछ दिन तो बस यूँ ही कट गए फिर मन ऊबने लगा सोची क्या करूँ? मन में आया यहाँ घूम रहे कुछ बच्चों को ट्यूशन ही पढ़ा लूँ लेकिन जमाना ऐसा है कि फ्री में पढ़ने के लिए एक भी बच्चा नही आया । एक दिन मेरी बहन ने कहा मेरे बेटे को पढा़ दो पैसे लेकर ,हम भी राजी हो गए । समय बीतता गया बच्चों की तो लाइन लग गई मेरे पास ,अब कुछ बच्चे पैसे देकर और कुछ फ्री में बिना शुल्क दिए शिक्षा ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिए । जिससे मैं भी खुश और बच्चे भी खुश रहने लगे।
परन्तु मेरे पास एक समस्या जो रोज आती थी जिसका नाम था निक्की, सुनने में बडा़ प्यारा नाम है लेकिन मेरे लिए यह एक आफत थी जो रोज पढ़ाते समय बच्चों को चिढ़ाया करती थी । बहुत दिनों तक मैं परेशान होने के बाद एक दिन डंड़ा उठाई और दूर तक उसे मारने दौड़ाई फिर मैने विचार किया और अपने से प्रश्न भी ,क्या मैं पागल हूँ ? और यही सोच कर वापस अपने घर में आ गई ।कहानी नई मोड़ लेती है साथ में मेरी सोच भी ।शाम का समय था निक्की कही जा रही थी यह वही है जिसे बच्चे पगली कह कर बुलातें है, छेड़ते है,और बहुत मारते भी है ये सब देखकर दिल द्रवित हो जाता है।पर कुछ समझ नही आता क्या करें उसके लिए ।
सोच -विचार करते मैने उसे बुलाया फटे कपड़े , शरीर की गन्दगी देखकर मनोदशा में कुछ हलचल सी हुई मन अपने फैसले से डगमगा रहा था ,सोची क्यों बुलाई भेज दूँ इसे पर मुझे उससे बात करनी थी और मै हिम्मत करके पूछी! कि तुम पढ़ोगी?उसने तुरन्त हाँ में सर हिलाई और चली गई अपने माँ से कहने, "अम्मा दीदी पढ़ाई " उसकी माँ ने कहा!"पैसे नहींं है मेरे पास, उसने कहा!"दीदी पैसा नाही " ।जिसे सुन कर उसे इज़ाजत मिल गया पढ़ने के लिए । मैं भी खुश होकर दूसरे दिन उसका इन्तजार कर रही थी ,आने पर उसको पढ़ाना शुरू की पता चला उसके शब्द
मेरा मानना है कि मेरे देश में ना जाने कितने लोग ऐसे पड़े हुए है जिनको एक राह दिखाने की आवश्यकता है ।क्या सरकार को इनके बारे में कोई कोशिश करनी चाहिए जिससे हमारी पगली जैसे कई लड़कियाँ नार्मल जिन्दगी जी सके ।
क्या इस महिला सशक्तिकरण पर कोई साथ चलेगा दो कदम उस पगली के साथ ?
-प्रियंका पाण्डेय
गोरखपुर (उ०प्र०)