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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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शनिवार, 23 जनवरी 2021

अधूरे ख्वाब

 आधी रात गए ,

नींद में डूबे ख्वाब,

पलकों को भिगोते हैं,

वो ख्वाब जो जिंदगी की,

 हर सांस में जिन्दा थे,

आज कैद है पिंजड़ों में ,

कभी आज़ाद परिंदा थे,

बुनते थे कुछ उलझे हुए ,

धागों से अपने लिए घरौंदे,

सींचते थे बारिश में ,

प्यार से नन्हे नन्हे पौधे ,

लेकिन वक्त की आंधी से,

वो घरौंदे उजड़ गए ,

नन्हे पौधे सारे जड़ों से ही ,

टूट कर उखड़ गए ।

वो ख्वाब अब होटलों में ,

जूठे बर्तन धोते हैं,

काम से थक कर भूखे ही ,

बेसुध फुटपाथों पर सोते हैं,

दो वक्त की रोटी के लिए ,

छोटू बन अपना नाम खोते हैं।

ये परिंदे ये पौधे ,

हर शहर में बसे होते हैं,

और आधी रात गए ,

टूटे हुए ख्वाबों की अर्थी लिए ,

नींद में डूबी पलकों को भिगोते है।

                                                       अपर्णा नायक

महोबा, उत्तर प्रदेश 

 

 

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