अधूरे ख्वाब

सृजन
0

 आधी रात गए ,

नींद में डूबे ख्वाब,

पलकों को भिगोते हैं,

वो ख्वाब जो जिंदगी की,

 हर सांस में जिन्दा थे,

आज कैद है पिंजड़ों में ,

कभी आज़ाद परिंदा थे,

बुनते थे कुछ उलझे हुए ,

धागों से अपने लिए घरौंदे,

सींचते थे बारिश में ,

प्यार से नन्हे नन्हे पौधे ,

लेकिन वक्त की आंधी से,

वो घरौंदे उजड़ गए ,

नन्हे पौधे सारे जड़ों से ही ,

टूट कर उखड़ गए ।

वो ख्वाब अब होटलों में ,

जूठे बर्तन धोते हैं,

काम से थक कर भूखे ही ,

बेसुध फुटपाथों पर सोते हैं,

दो वक्त की रोटी के लिए ,

छोटू बन अपना नाम खोते हैं।

ये परिंदे ये पौधे ,

हर शहर में बसे होते हैं,

और आधी रात गए ,

टूटे हुए ख्वाबों की अर्थी लिए ,

नींद में डूबी पलकों को भिगोते है।

                                                       अपर्णा नायक

महोबा, उत्तर प्रदेश 

 

 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!