आधी रात गए ,
नींद में डूबे ख्वाब,
पलकों को भिगोते हैं,
वो ख्वाब जो जिंदगी की,
हर सांस में जिन्दा थे,
आज कैद है पिंजड़ों में ,
कभी आज़ाद परिंदा थे,
बुनते थे कुछ उलझे हुए ,
धागों से अपने लिए घरौंदे,
सींचते थे बारिश में ,
प्यार से नन्हे नन्हे पौधे ,
लेकिन वक्त की आंधी से,
वो घरौंदे उजड़ गए ,
नन्हे पौधे सारे जड़ों से ही ,
टूट कर उखड़ गए ।
वो ख्वाब अब होटलों में ,
जूठे बर्तन धोते हैं,
काम से थक कर भूखे ही ,
बेसुध फुटपाथों पर सोते हैं,
दो वक्त की रोटी के लिए ,
छोटू बन अपना नाम खोते हैं।
ये परिंदे ये पौधे ,
हर शहर में बसे होते हैं,
और आधी रात गए ,
टूटे हुए ख्वाबों की अर्थी लिए ,
नींद में डूबी पलकों को भिगोते है।
अपर्णा नायक
महोबा, उत्तर प्रदेश