.

सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

नवीनतम

शनिवार, 23 जनवरी 2021

मातृ भाषा और शिक्षा

         निज भाषा उन्नति अहै

         सब उन्नति को मूल

        बिन निज भाषा -ज्ञान के

        मिटत न हिय को शूल "

                आदि हिंदी रचनाकार  भारतेंदु हरिश्चंद्र, की उक्त पंक्तियां मातृभाषा के महत्व को अत्यधिक स्पष्ट कर देती है जन्म  के बाद मनुष्य सर्वप्रथम अपनी मातृ भाषा से परिचित होता है। यानि वह भाषा जो सर्वप्रथम हमारे अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है, मातृभाषा कहलाती है। साधारण शब्दों मे "माता द्वारा सर्वप्रथम सिखाई जाने वाली भाषा ही मातृभाषा होती है। मानवीय अभिव्यक्ति की प्रथम माध्यम भाषा. मातृभाषा. हमारे जीवन मे विशिष्ट स्थान रखती है क्योंकि हम सर्वप्रथम हमारे जीवन का बुनियादी ज्ञान अपनी माता से इसी भाषा में ग्रहण करते हैं। हमारे प्रथम गुरु माता पिता से हमारे विचारों का आदान-प्रदान भी इसी भाषा में होता है और हम हमारे विस्तृत लोक साहित्य का परिचय भी हमें इसी भाषा में होता है। हमारे जीवन के प्रथम पड़ाव का प्रथम महत्वपूर्ण क्षण मातृभाषा को सीखना है क्योंकि यही हमारा भविष्य निर्धारित करती है अथवा यूं कहें कि हमारे ज्ञान की बुनियादे भरने का कार्य मातृभाषा करती है जो हमारे ज्ञान की इमारत गढ़ने  में बेहद महत्वपूर्ण है।

 भारत में प्राचीन काल से मातृभाषा का महत्व स्पष्ट दिखता है। महान सिंधु सभ्यता काल से ही मातृभाषा के स्पष्ट अवशेष मिलते हैं संभवत यह भारतीय उपमहाद्वीप के मातृभाषा ही विकास की प्रथम सोपान थी। हालांकि इस महान सभ्यता की लिपि ने पढ़ पाने के कारण फिलहाल यह अस्पष्ट है कि वे मूलतः किस भाषा में बोलते थे किंतु यह स्पष्ट है कि उनकी भी एक मातृभाषा थी। आगे वैदिक काल में आर्यों ने संस्कृत जैसी भाषा को मातृभाषाई  दर्जा देकर महान ऋचाओं की रचना की। महाजनपद युग में दो नवीन विचारों का विस्मयकारी उदय हुआ जो इतिहास में बौद्ध व जैन विचार कहलाए। दोनों ने मातृभाषा का महत्व समझा और महात्मा बुद्ध ने अपनी बौद्धिक शिक्षा देने का माध्यम लोक प्रचलित पाली व  महावीर स्वामी ने अपने विचारों का माध्यम दूसरी लोक प्रचलित भाषा प्राकृत को अपनाया क्योंकि अब संस्कृत का रूप आडंबर वादी हो गया था। इस तरह गुप्त काल में ग्रामीण देहातों में प्राकृत का ही वर्चस्व रहा जो सामान्य जन माध्यम भाषा बनी। उल्लेखनीय है कि गुप्तों से पूर्व सम्राट अशोक महान ने सर्वाधिक मातृभाषा को महत्व दिया यही कारण था कि उसने अपने धम्म आदेशों को विभिन्नक्षेत्रीय भाषाओं मे शिलाओं  पर उत्कीर्ण कराएं। 6 वी सदी के बाद के क्षेत्रों में अलग-अलग मातृभाषा प्रचलित हुई जो संस्कृत से ही उत्पन्न हुई और आगे उनमें नवीन लोक साहित्य रचे जाने लगे। सल्तनत व  मुगलों के काल में  भले ही राजभाषा अरबी व फारसी रही हो किंतु विभिन्न क्षेत्रों में लोक  मातृभाषाई विकास वेगमान रहा। आजादी की   पूर्व संध्या पर ब्रिटिश हुकूमत ने अपना अंग्रेजी प्रभाव उपमहाद्वीप पर छोड़ने के भरसक प्रयास किए किंतु अपनी मातृभाषाई  प्रेम की  ढाल से भारतीय लोगो ने इसका प्रभाव असफल कर दिया। और आजादी के बाद तो मातृभाषा का महत्व और भी बढ़ गया यही कारण था की हमारे संविधान निर्माताओं ने भाषाई महत्व को समझकर विशिष्ट उपबंध किये। इसी के चलते आज लगभग कुछेक अपवादों को छोड़कर विभिन्न क्षेत्रीय मातृभाषाो का क्षेत्र विस्तृत हो रहा है।

शिक्षा मानवीय जीवन का मूल आयाम व आवश्यकता है। इस शिक्षा मे भाषा का अत्यधिक महत्व है क्योकि अधिक सहज भाषा हमारे ज्ञान को अधिक विस्तृत करती है। विभिन्न विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में ज्ञान के माध्यम पर कई वर्णन किए किंतु वास्तव में अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका कि ज्ञान का सर्वमान्य माध्यम क्या हो जो हमें सहज ज्ञान ग्रहण करने में सहायता दे। शिक्षण अभिवृत्ति ज्ञान के भाषा माध्यम को महत्वपूर्ण प्रदर्शित करती है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक ज्ञान व शिक्षा की विस्तृत श्रृंखला में शिक्षा माध्यम का महत्व और भी बढ़ जाता है ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि ज्ञान का सुसाधारण माध्यम क्या हो।

यदि संपूर्ण भारतवर्ष पर दृष्टिपात करें तो लगभग सैकड़ों भाषा हमारे सामने आएगी। इनमें से बहुधा वह किसी क्षेत्र विशेष में बोली जाने वाली मातृभाषा है। इनके आंकड़ों में भिन्नता है। ऐसे में यदि किसी विशिष्ट भाषा को विशेष दर्जा दिया जाता है तो अन्य भाषाओं का उपहास होगा और वास्तव में थोपा जाना होगा जिससे  सांस्कृतिक एकता में सामाजिक अखंडता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा अंतः इन्ही  परिणामों को जानकर भारतीय संविधान में कुछ विशिष्ट उपबंध किए गए हैं जो विभिन्न मातृभाषा को बढ़ावा देता है जैसे कि भारतीय संविधान के भाग 17 में अनुच्छेद 350क. प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा, व अनुच्छेद 350ख. भाषाई अल्पसंख्यकों हेतु विशेष अधिकारी,  संबंधी प्रावधान करता है। इन बातों से ज्ञात होता है कि शिक्षा व भाषाई माध्यम को लेकर भारतीय संविधान सचेत है। यह उपबंध उन अल्पसंख्यक लोगो की मातृभाषा का भी संरक्षण करते हैं।

  हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी जी ने नवीन शिक्षा नीति की घोषणा की  जो एक नवीन पहल है, वह शिक्षा को आकांक्षाओं का विस्तृत क्षेत्र दे रही है। नवीन शिक्षा नीति में उच्च प्राथमिक स्तर तक मातृभाषा में शिक्षा संबंधी उपबंध  किए गए हैं। यदि यह उपबंध लागू होता है तो शिक्षा के क्षेत्र में एक द्रुतगामी परिवर्तन होगा व मातृभाषामहत्व और बढ़ जाएगा जो हमें हमारी जड़ों से और भी अधिक जोड़ देगा।

 यह बात प्राय  सुनने में आती है की मातृभाषा में ग्रहण की गई शिक्षा हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है वास्तव में यह तर्कसंगत कथन है क्योंकि मातृभाषा हमारे प्राथमिक ज्ञान  को सुदृढ़ीकरण देती है। यह हमें हमारी लोक संस्कृति से परिचित कराती है,  । कल्पना की जाए कि यदि किसी बच्चे को अपने वास्तविक समाज से दूर किसी बाह्य  समाज के बीच उनकी शिक्षा उसी बाह्य समाज की भाषा मे दी जाए तो क्या होगा?  यह एक भयावह परिणाम हो सकता है, कि मैं अपने वास्तविक समाज से तालमेल ही ने बिठा पाए या अत्यधिक समय लगे। अपनी संस्कृति के मूल्य से अपरिचित रह जाए व वह अपनी मातृभाषा के महत्व को समझने में नाकाम रहे। उक्त परिणाम बताते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा की अपनी आवश्यक है जो हमें सर्वप्रथम हमारे अपने समाज से परिचित कराकर वैश्विक समाज की और हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। यदि मातृभाषा को छोड़कर हम अन्य भाषा को प्रथम शिक्षा माध्यम बनाते हैं तो हम अपने व्यक्तिगत समाज से अपरिचित रह जाएंगे व शिक्षा प्राप्ति मे भी हमें असहजता महसूस हो सकती है। जहां अन्य भाषाई माध्यम हमें हमारे प्राथमिक स्तर से अलग करती है वही मातृभाषा में ली गई शिक्षा हमें प्राथमिक से उच्चतर स्तर में जोड़ने का कार्य करती है अंतः मातृभाषा में ग्रहण की गई शिक्षा हमारी प्रगति में सहायक है।

 मातृभाषा के महत्व का समग्र उल्लेख कर पाना असंभव है जिस प्रकार इसका स्वरूप विस्तृत है वैसे ही इसका महत्व भी विस्तृत है। आजादी के 70 से अधिक वर्ष बीत गए हैं किंतु आज भी मातृभाषा में शिक्षा का स्वरूप. नीति व संरचना कैसी हो यह निर्धारित नहीं किया गया है। यही कारण है कि कई मातृ भाषाओं को विशेष स्थान ही नहीं मिल पाया जिससे कई  भाषाएं तो हाशिए पर चली गई। अंतः अभी मातृभाषा के पुनः निर्धारण की आवश्यकता है। कई राज्य भाषाई विवादों से ग्रसित है क्योंकि उन्हें अन्य भाषाएं स्वयं पर थोपी हुई लगती है। संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद कई भाषाओं को उचित स्थान व सम्मान नहीं मिल पाया जिससे उनकी दशा आज दयनीय है।  अंतर इन सभी कमियों को शीघ्र ही दूर करने की आवश्यकता हो गई है क्योंकि देरी,  विकास में भी देरी उत्पन्न करती है फिर चाहे वे शिक्षा में हो या और किसी क्षेत्र में। हमें शीघ्र ही मातृ भाषाओं का पुनः निर्धारण कर उन्हें उचित स्थान देने की आवश्यकता है। हाशिए पर विद्यमान भाषाओं को विकसित करने की आवश्यकता है, बसई विवादों से ग्रस्त राज्यों को शांतिपूर्ण तरीके से समझा कर व संतुष्ट कर विवादों को सुलझाना चाहिए। अब जब नवीन शिक्षा नीति मातृभाषा में शिक्षा को विस्तृत क्षेत्र प्रदान कर रही है तो यह भी आवश्यक है कि इनका पाठ्य स्तर सुधारा जाए वह अंग्रेजी आदि में विद्यमान उच्चतर पाठ्य सामग्री को मातृ भाषाओं में सुलभ कराया जाए जिससे शैक्षिक सुधार के  स्तर में भी वृद्धि होगी और हमारी मातृभाषा में ली गई शिक्षा अपनी जड़ों से और भी दृढ़ता से जुड़ेगी।

                                                               सुरेन्द्र सिंह रावत

                                     अजमेर, राजस्थान 

 

 

 

 

सर्वाधिक लोकप्रिय