महाराणा प्रताप की राष्ट्रवादी नीति: समीक्षा

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          सोलवीं सदी के मध्य पूर्व में भारतीय इतिहास में एक खास परिवर्तन आया अब तक दिल्ली में जहां तुर्को या अफगानी  का शासन था वहां एक सर्वथा नवीन बर्बर मंगोल जाति से संबंध मुगलों का आगमन हुआ हालांकि मुगलों ने स्वयं कभी बल देकर मंगोलो के प्रति अपने संबंधों को नहीं दर्शाया किंतु चंगेज खां के नियम संग्रह. यस्सा, के अंशों को उन्होंने स्वयं से अलग नहीं किया। सुविदित है   की 1526 ईसवी मैं बाबर ने अपने नवीन प्रयोगात्मक युद्ध पद्धतियों से लोदियो  को हराकर दिल्ली में अपनी सत्ता कायम की। आगामी वर्ष 1527 ईस्वी मैं उसने शक्तिशाली मेवाड़ शासक राणा सांगा को खानवा के मैदान में पराजित कर मुगल साम्राज्य को दृढ़ता प्रदान की। अराजकता के दौर में फैली अस्थिरता से हुए मुगल- सूर युद्ध और हुमायूं की असफलताओं और पुनः राज्य प्राप्ति का उल्लेख आवश्यक नहीं। किंतु भारतीय इतिहास पटल पर नवीनता के उस दौर का सूत्रपात तब होता है जब हुमायूं का पुत्र अकबर पानीपत की दूसरी लड़ाई 1556 ईस्वी में हेमू को परास्त कर तख्त आसीन होता है।

            राजपूताना या पश्चिमोत्तर भारतीय क्षेत्र जो कई  राज रजवाड़ों का प्रिय स्थल रहा है हमेशा से ही इतिहास ग्रंथों में को उत्तेजना का विषय रहा है। अगर किसी सम्राट को दिल्ली से शासन करना हो तो उन्हें यहां की क्षेत्रीय रियासतों को अपना अधिपत्य  करना आवश्यक था। जिस समय बादशाह अकबर गद्दी पर बैठा उस समय क्रमशः आमेर रणथम्भोर बूंदी जोधपुर बीकानेर मेवाड़ मेड़ता आदि प्रमुख राजपूत रियासत यहां विद्यमान थी। 1562 ईस्वी में अकबर की अधीनता स्वीकार कर आमेर  नरेश भारमल ने ऐसा मार्ग खोला जिसने 1570

ईसवी तक लगभग संपूर्ण राजपूताने को अपने अधीन कर लिया। विख्यात है कि 1568 ईस्वी मैं हुए मेवाड़ के तृतीय साके में अकबर और राणा उदय सिंह दोनों को अवर्णनीय हानि उठानी पड़ी। वीरोचित  स्वभाव वाले महान मेवाड़ी सेना नायक जयमल और फत्ता ने वंश विनाश से बचाने के लिए राणा को अरावली के जंगलों में भेज दिया। अकबर की यह विजय क्षणिक ही थी क्योंकि उसके लौटते ही राणा ने अपने राज्य प्राप्ति के पुनः प्रयास करने प्रारंभ कर दिए। मेवाड़ की कुंजी कुंभलगढ़ अभी भी राणा के पास ही था। अस्थिरता की अवस्था मैं राणा उदय सिंह की 1572 ईस्वी में मृत्यु हो गई। उन्होंने सत्य छोटी रानी भटियाणी के पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी मनोनीत किया था किंतु स्वामीबाग मेवाड़ी सामंतों ने बड़ी रानी जयवंता बाई सोनगरा के सुयोग्य पुत्र कुंवर प्रताप को गद्दी पर बैठाया। प्रताप का फरवरी 1572 ईसवी में गोगुंदा की घाटियों में राज्य अभिषेक संपन्न हुआ। इसी राज्य अभिषेक ने उसके भाइयों जगमाल और शक्ति सिंह के हृदय में द्वेष भर दिया और वे अकबर के दरबार में चले गए।

                 राणा प्रताप को पूर्व ही गया था अकबर के आधिपत्य का संदेश किसी भी समय प्राप्त हो सकता है। और प्रताप का हृदय स्वतंत्रता का  प्रतीकात्मक देवल था जिसमें कभी मुगल मैत्री भावना उत्पन्न ही नहीं हो सकती थी। इतनी विषम और घातक परिस्थितियों में उसने संयम का परिचय देते हुए विलासी जीवन का त्याग कर अरावली के पश्चिमी छोर में अपना आवास बनाया। अंततः कुछ ही समय बाद अकबर का दरबारी जलाल खान कराची आधिपत्य संदेश लेकर आया। राणा को किया था कि परिस्थितियां विषम है यूट्यूब वार्ता का परिणाम युद्ध है और उसका एक मतलब मेवाड़ का विनाश ही है  उन्होंने समय की मांग और सोचने के आशय से खान को वापस भेज दिया। आगामी समय में राणा को अकबर का यही संदेश क्रमश मानसिंह भगवंत दास वे टोडरमल से भी प्राप्त हुआ किंतु राणा ने उन्हें भी बुद्धिमत्ता पूर्वक वापस भेज दिया। हालांकि कुछ राजस्थानी ग्रंथों के अनुसार राणा के द्वारा मुगल आधिपत्य स्वीकारने पर मानसिंह को कटाक्ष और ताने मारना बताया गया है किंतु यह न  तो तर्कसंगत प्रतीत होता है एवं न  ही विश्वसनीय।

 1576 ईस्वी में अकबर का मंतव्य तीव्र हो गया उसने राणा प्रताप की चाल बावली की वाकपटुता के झांसे में यह एक षड्यंत्र सा है किंतु राणा का यह करना तर्कसंगत ही था क्योंकि मौजूदा परिस्थितियां युद्ध का सटीक संकेत थी। और युद्ध के लिए राणा को अतिरिक्त समय की आवश्यकता थी। यदि राणा उसी समय युद्ध की घोषणा करता तो संपूर्ण मेवाड़ का विध्वंस हो जाता। जून 1576 ईस्वी में अकबर ने कुंवर मान सिंह के नेतृत्व में मुगल सेना अजमेर से रवाना की जो खमनोर के मैदान में आकर रुकी। राणा को विकल्प मार्ग नहीं जान पड़ा तो वे

स्वयं भी राजपूत सेना को हकीम खान सूर के नेतृत्व में गोगुंदा की पहाड़ियों में लेकर आ गया। 18 जून 1576 ईस्वी को हल्दीघाटी नामक विषम दर्रे से कुछ दूरी पर महायुद्ध प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में राजपूतों ने इतना भयानक प्रतिरोध किया कि मुगल सेना के पैर  उखड़ने लगे। सेना में भगदड़ मच गई की मिहतर खान नामक सैनिक ने अफवाह उड़ा दी की बादशाह स्वयं अजमेर से बड़ी सेना लेकर आ रहे हैं। भक्ति मुगल सेना में जोश का संचार हुआ और वह आक्रांत स्वभाव से लड़ने लगी  । राणा का प्रिय घोड़ा पहले ही घायल हो चुका था मेवाड़ी रावतों के आग्रह व  समझाने के बाद कि यदि वे स्वयं जीवित रहे तो   मेवाड़ का यह स्वतंत्रता संग्राम भी जीवित रहेगा, तो काफी अपवाद के बाद राणा ने युद्ध क्षेत्र से हटने का प्रस्ताव स्वीकार किया। किंतु सकरे मार्ग से जाते वक्त राणा का प्रिय घोड़ा चेतक घायल अवस्था में मर गया। उधर हखिम खां  सूरी ने विपरीत परिस्थितियों में युद्ध राणा प्रताप की सलाह अनुसार घाटियों  की ओर मोड़ लिया क्योंकि राणा अच्छे से जानता था कि मुगल सेना पहाड़ों में लड़ने हेतु अभ्यस्त नहीं है। जून की तपिश से बेहाल मानसिंह को अनिर्णायक स्थिति में ही सेना को वापस मोड़ना पड़ा हालांकि इतिहास में राणा प्रताप की इस युद्ध में पराजय होना बताया गया है।

                          इस संग्राम के बाद भी राणा ने विराम नहीं लिया। भामाशाह से अर्थ सहायता प्राप्त कर सेना को संगठित कर राणा ने अकबर के मुगल थानों पर छापामार प्रणाली से धावा बोलना शुरु कर दिया। आगामी वर्ष में अकबर द्वारा भेजे गए शाहबाज खान के नेतृत्व में अभियान को राणा ने असफल बना दिया। कुछ ही समय बाद जब कुंवर अमर सिंह ने अब्दुर रहीम खानखाना नामक मुगल सेनापति के ठिकानों को लूटा तो राणा ने अपनी शीलता का परिचय देते हुए उसके बच्चे भी स्त्रियों को पुनः मुगल खेमे में पहुंचा दिया। मेवाड़ के मैराथन कहे जाने वाले दिवेर के युद्ध  अक्टूबर 1582 ईस्वी में राणा ने अकबर के थाना अधिकारियों सुल्तान खान और बहलोल खान आदि को पराजित कर इस महत्वपूर्ण मुगल थाने पर अपना अधिकार कर लिया। रक्त और संग्राम के इसी दौर में राणा की मृत्यु 1597 ईसवी में एक जंगी धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के प्रयत्न में हो गई। बाडोली में इनका दाह संस्कार किया गया। कुंवर अमर सिंह का राज्याभिषेक हुआ परंतु मुगल समस्या अभी समाप्त नहीं हुई थी अकबर की मृत्यु के बाद 1605 ईसवी में जहांगीर गद्दी पर बैठा उसने आखिर में राणा अमर सिंह को मना ही लिया और राणा अमर सिंह को भी अन्य कोई विकल्प नहीं जान पड़ा तो 1615 में मुगल मेवाड़ संधि संपन्न हुई और इस प्रकार आधी शताब्दी से चले आ रहे इस संग्राम को विराम मिला।।

सुरेंद्र सिंह

 ब्यावर ,अजमेर

राजस्थान

    

 

 

 

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