जिंदगी का जज्बा भी अब क्या रह गया ?
धूल के कण सी जिंदगी को इंसान सोचता रह गया ।
न जाने कब चूर -चूर है सपने ।
न जाने कब दूर -दूर है अपने ।
अपने तो है पर अपनापन कहीं खो गया।
न जाने अहम् के बीच कहां गुम हो गया।
हर पल कुछ न कुछ पाने की चाह ने हमें वहशी बना दिया।
शील, सदाचार ,संस्कार सब को भुला दिया।
ईश्वर ने कोरोना के रूप में यह संदेश भेजा है ।
मैं प्रकृति हूं अपना संतुलन बना लेती हूं ।
ए मानव अब भी समय रहते अपना संतुलन बना ।
रोक खुद को नहीं तो फिर एक नश्वर इतिहास बना।
कैसा यह दौर है आ गया ।
बुलबुले सी जिंदगी को इंसान सोचता रह गया ।
जाने -अनजाने प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं हम।
पुराने दायरो को छोड़ नए दायरे बनाने में जुटे हैं हम ।
दायरा कुछ भी हो बस कर्तव्य परायणता को ना त्यागना ।
नैतिक मूल्यों की दृष्टि से ही जीवन को निहारना।
यह दौर चाहे जैसा भी आ गया।
अनमोल जिंदगी के अर्थ को समझा गया।।
- सीमा रानी गौड़