घर से तो मैं समय से ही चला था | नगर के बाहर तक भी समय से ही पहुँच गया था | लेकिन नगर के अन्दर जाम के कारण मुझे परीक्षा केन्द्र तक पहुँचने में थोडा सा विलम्ब हो गया था | अपनी मोटरसाइकिल एक और खडी करके मैंने हेलमेट उतारा | भीड़ को पार करके मैं परीक्षा केन्द्र में प्रवेश करने ही वाला था कि जेब मैं पड़े मोबाइल का ध्यान आया | हडबडाहट में कुछ समझ नही आया | मैं वापस अपनी बाइक की तरफ चला | हेलमेट तो मैंने बाइक पर लटका दिया लेकिन मोबाइल का क्या किया जाए ? तभी पास में खड़ी एक स्कूटी पर दृष्टि पड़ी | स्कूटी का नम्बर मेरे अपने जनपद का था | कोई सज्जन अपनी पत्नी को लेकर आये थे परीक्षा दिलाने | मैंने तुरन्त उनसे बस इतना पूछा कि वो लोग कहाँ से हैं ? उनका उत्तर सुनते ही मैंने अपना हेलमेट और मोबाइल उनको थमाते हुए कहा कि आप तो बाहर रहेंगें ही मेरा सामान भी रख लीजिये |
इससे पहले कि वो कुछ बोलते मै अपना सामान उन्हें थामकर तेज़ी से निकल गया | देर तो हो ही गयी थी | लेकिन प्रश्नपत्र के वितरण से पहले ही मैं अपने निर्धारित कक्ष में पहुँच गया था | विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा का पहला प्रश्नपत्र
हाथ में आ चुका था | पहले प्रश्नपत्र को हल करते समय तो प्रश्नों के अलावा कोई विचार मन में नहीं आया | लेकिन दूसरा प्रश्नपत्र जब समाप्त होने को आया तब मोबाइल और हेलमेट का विचार मस्तिष्क में उभरा | हेलमेट तो खैर अधिक मूल्यवान नहीं था लेकिन मोबाइल….. वो तो महत्व रखता था | अब लग रहा था कि किसी अजनबी को ये चीज़ें नहीं सोंपनी चाहिए थी | खैर दोनों पेपर अच्छे हुए | समय समाप्ति की घोषणा पर उत्तर पुस्तिकाएँ सौंप कर में प्रसन्न मन से कक्ष से बाहर निकला | एक कमरे के बाहर भीड़ देखकर पता चला चला कि परीक्षा केन्द्र के अन्दर उस कमरे में मोबाइल और थैले आदि जमा करने के लिए एक काउण्टर बनाया गया था | मैंने उस समय थोड़ी ज़ल्दबाजी न की होती तो मोबाइल यहीं पर जमा किया जा सकता था |
परीक्षा केन्द्र के भवन के बाहर आकर में सीधा अपनी बाइक के पास पहुँचा | उसके बाद मैंने उस स्कूटी की तलाश में नज़र दौडाई जिसके स्वामी को मैंने अपना सामान सौंपा था | …………… स्कूटी वहाँ नही थी | …………….. परीक्षार्थी अपने-अपने वाहन लेकर तेज़ी से निकल रहे थे | जो लोग जा चुके थे उनका तो क्या किया जा सकता था इसलिए शेष बचे हुए वाहनों पर मैंने तेज़ी से नज़र दौड़नी शुरू कर दी | मेरी बेवकूफी की हद ये थी कि मैंने यह तो देखा कि स्कूटी के नम्बर में जनपद का कोड़ मेरे अपने जनपद का है लेकिन पूरा नम्बर नोट नहीं किया था |
परीक्षा छूटे पन्द्रह मिनट हो चुके थे अधिकांश वाहन जा चुके थे | मेरे मन मस्तिष्क में सुबह का पूरा घटनाक्रम घूमने लगा | अचानक मुझे याद आया कि जब मैं अपना मोबाइल उन सज्जन को देने से पहले स्विच ऑफ कर रहा था तब उनकी धर्मपत्नी उनसे कह रही थी कि उनका परीक्षा कक्ष इस भवन में नही अपितु इसी कॉलेज के दूसरे भवन में है | मैं तुरन्त बाइक लेकर कॉलेज के पीछे इसके दूसरे भवन के मेन गेट पर पहुँचा | तब तक अधिकांश वाहन निकल चुके | जो शेष बचे थे उनमे कोई भी स्कूटी नही थी |
अब सामान वापस मिलने की सारी आशाएँ समाप्त हो चुकी थीं | मैं मन ही मन खुद को कोसने लगा | अब कैसे सामान मिले ? पूरे जनपद में एक ऐसी स्कूटी को ढूँढना जिसका नम्बर भी पता नही | और एक ऐसे व्यक्ति को ढूँढना जिसका न तो मोबाइल नम्बर पता और न ही नाम ……… |
भारी मन से मैंने वापस जाने का मन बना लिया था | मानव स्वभाव में दूसरों पर दोषारोपण करने का स्वाभाविक गुण होता है | इसलिए अब हृदय में यह विचार उमड़ रहा था कि मेरी तो हज़ार गलतियाँ हैं …. लेकिन इसका यह मतलब थोड़े ही है कि दूसरा आदमी बेईमानी पर ही उतर आये | किसी का सामान ले कर फरार हो जाना कहाँ की इंसानियत है?
वापस जाते समय मैं उसी कॉलेज के सामने एक पल के लिए ठिठका और उस खाली जगह नजर दौडाई जहाँ वह स्कूटी खड़ी थी | सब जा चुके थे जहाँ कुछ देर पहले मेले जैसी
भीड़ थी वहाँ अब कोई नही था |
तभी पीछे से किसी ने पुकारा- “कहाँ चले गये थे भाई साहब ? हम आपकी यहाँ प्रतीक्षा कर रहे थे |”
ये वही सज्जन थे | उन्होने मेरा हेलमेट और मोबाइल मुझे सौंपा | मैं तो हैरान सा कुछ बोल न सका लेकिन उनकी पत्नी ने यह कहकर स्थिति स्पष्ट की -”आप शायद हमें दूसरे भवन की तरफ ढूँढने गये होंगें और तभी हम यहाँ आ गये |” इससे पहले कि मैं कुछ कहता वो लोग तेज़ी से आगे बढ़ गये |
वो दिन हमेशा एक अच्छी याद के रूप में दिमाग में रहता है | एक कारण तो यह कि मैंने वो परीक्षा पहले ही प्रयास में अच्छे अंकों से पास की थी और दूसरा यह कि उस दिन ईमानदारी और विश्वास भी पास हो गये थे |
-जय कुमार