रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद आती है ईद। नए कपड़े, सेवाइयां, ईद मिलन, तोहफे, खिलखिलाते हुए चेहरे इन सब के अलावा मुझे ईद पर कुछ और याद आता है वो है बचपन में पढ़ी प्रेमचंद की कहानी ईदगाह जो मेरे जहन को झकझोर जाती है। वो बच्चा हामिद जिसने अपने अभाव को ताकत में बदल दिया, कच्ची सी उमर में बलिदान कर बैठा, हालांकि यह बिल्कुल संभव है कि उसे बलिदान का मतलब तक न पता हो। दूसरों की आवश्यकताओं के विषय में पहले सोचने वाला, क्या महान नहीं होगा, फिर मुझे उस पर गर्व क्यों नहीं होता? क्यों हामिद का ख्याल आते ही मैं ग्लानि से भर जाती हूं......?
आज फिर एक हामिद को देखा हां नाम उसका जरूर ज्योति कुमारी है। ज्योति के कंधे पर इसबार कोई चिमटा नहीं बल्कि घायल पिता की जिम्मेदारी थी..
वो अपने पैरों से पिता की मजबूरी नहीं हमारी नाकामयाबी को खींच रही थी,
उसने अपने रास्ते के हर मोड़ पर 'नारी अबला है' जैसे तथाकथित शब्दों को दुत्कारा और हम शर्म से पानी भी ना हुए।
वो अपने पैरों से पिता की मजबूरी नहीं हमारी नाकामयाबी को खींच रही थी,
उसने अपने रास्ते के हर मोड़ पर 'नारी अबला है' जैसे तथाकथित शब्दों को दुत्कारा और हम शर्म से पानी भी ना हुए।
आज फिर वही सवाल, क्या सैकड़ों किलोमीटर साईकिल चलाना गर्व की बात नहीं फिर मैं क्षमाप्रार्थी सा क्यों महसूस कर रही हूं ? हजारों या शायद उससे भी अधिक हामिद अभी भी अपना चिमटा लिए अपने अभाव को ताकत बना किसी पर रौब झाड़ रहे होंगे। और ये तब तक चलता रहेगा जब तक हम उन्हें उनका बचपन, उनका हक ना देकर देते रहेंगे शाबाशी ।
-कनकलता ‘कन्नौजिया’
जनपद- श्रावस्ती