सम्पादकीय (फ़रवरी 20)

सृजन

अपनी बात     
   प्रधानपति’ एक ऐसा शब्द है जो सीधे-सीधे महिलाओं के अस्तित्व को चुनौती देता है | सभ्य समाज में ऐसे शब्दों के लिए कोई स्थान होना ही नही चाहिए | आखिर लोकतन्त्र में कैसे किसी लोकतान्त्रिक पद के ‘पति’ जैसा शब्द जोड़ा जा सकता है ? पति पत्नी का हो सकता है किसी पद का नहीं | यह शब्द अगर प्रचलन में है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि या तो पुरुष ‘प्रधान’ पद पर बैठी किसी महिला को गम्भीरता से नही लेते या फिर महिला ही अभी इतनी सक्षम नही हो पायी है कि वे अपनी इच्छा से चुनाव लड़ सकें,स्वयं दूसरों की समस्याओं को सुनकर उनका हल कर सके |
पुरुष-प्रधान समाज होने का रोना रोने की बजाय महिलाओं को उन अधिकारों के प्रति सजग होना पड़ेगा जो भारतीय संविधान उन्हें देता है | समाज कुछ भी कहे, समझे या माने, संविधान तो उन्हें बराबरी के अधिकार देता है | पुरुष की दया-दृष्टि से सक्षम बनने की इच्छा रखने की बजाय महिलाओं को अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करके सक्षम बनना होगा | पति या किसी परिवार के किसी अन्य सदस्य के कहने से चुनाव लड़ने की बजाय महिलाओं को खुद अपनी इच्छा से चुनाव लड़ने का मन बनाना होगा | देखा जाये तो समाज में प्रधानपतियों को अस्तित्व में कुछ महिलाओं की कमजोरी ही  लायीं हैं |
जब एक शिक्षिका अपने पद पर आसीन होती है तो उसका स्थान कोई और नही ले पाता क्योंकि वो उस पद पर अपनी व्यक्तिगत योग्यताओं के कारण पहुँचती है, अपने पति की योग्यताओं के कारण नही | वहीँ दूसरी ओर प्रधान के लिए चुने जाने के वावजूद भी कुछ महिलाएँ अपने स्थान तक नही पहुँच पाती क्योंकि चुनाव उन्होंने नही बल्कि उनके ‘प्रधानपति’ ने लडा था | आवश्यकता है कि परुष-प्रधान समाज होने का रोना रोने के बजाय महिलाओं को मानसिक रूप से शारीरिक रूप से भी बलवती बनना होगा | सृजन के इस अंक में आप इसी विषय पर कुछ और विचार-विमर्श पढेंगें |
महाशिवरात्रि और सन्त शिरोमणि गुरु रविदास जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ |
-जय कुमार 

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