हमारे संविधान ने हमें शासन की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था दी है। जब भारत में इस व्यवस्था की नींव राखी गई, तो कई लोग ये सोचते थे कि भारत की भयावह गरीबी, व्यापक निरक्षरता, विशाल और बहुआयामी आबादी के साथ जाति, पंथ, धर्म और भाषा की विविधता को देखते हुए लोकतंत्र भारत के लिए उपयुक्त नहीं होगा। निराशावाद के वे सभी समर्थक गलत साबित हुए हैं। 26.01.1950 को हमारे संविधान के गठन के बाद से इन सभी वर्षों में काम करने वाला भारत का संसदीय लोकतंत्र समय की कसौटी पर खरा उतरा है और एक कार्यशील लोकतंत्र के रूप में बना हुआ है। भारतीय जनता के विशाल मतदाताओं ने जब भी आवश्यकता होती है, 'जिम्मेदारी और अदम्य ज्ञान' की भारी भावना के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण दुनिया को दिखाया है, उन्होंने अपने मत का इस्तेमाल सत्ता में एक पार्टी को उखाड़ फेंकने के लिए एक गोली की तरह किया है जो संविधान या लोकतांत्रिक संरचना या इसका धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को कमजोर करने का उपक्रम करता है। हाल ही में एक सक्रिय नागरिक समाज के उदय और भ्रष्टाचार के खिलाफ उसके आंदोलन, जिसने लोगों की शक्ति को सबसे आगे लाया है, ने हमारे लोकतंत्र को और मजबूत और गहरा किया है। कुछ अच्छे आलोचकों ने हमारे संसदीय लोकतंत्र से अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली में स्विच-ओवर की वकालत की है, जो गठबंधन सरकारों की प्रणाली में सरकारी अस्थिरता की बीमारी के उपचार के रूप में है, जो भारत में एक अपरिहार्य वास्तविकता बन गई है, खासकर 1989 से जब कोई राजनीतिक पार्टी पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल रही है। हालांकि, यह भी सच है कि गठबंधन सरकारों के बावजूद, हमने अब तक काफी हद तक राजनीतिक स्थिरता का अनुभव किया है। यह ठीक ही कहा गया है कि 'सरकार में अस्थिरता का हमारा अनुभव संसदीय प्रणाली को त्यागने का पर्याप्त कारण नहीं है'। आज हमारा संसदीय लोकतंत्र जिस भी समस्याओं का सामना कर रहा है, उसमें सुधार किया जा सकता है- चाहे वह अस्थिरता सिंड्रोम हो, राजनीति का अपराधीकरण हो या संसद को जबरन व्यवधान, टकराव या जबरन स्थगन के माध्यम से निष्क्रिय कर दिया गया हो। इसके लिए दो चीजों की जरूरत है (ए) मौजूदा संसदीय प्रणाली के भीतर किए जाने वाले आवश्यक सुधार और (बी) राजनीतिक व्यवस्था में चरित्र और अखंडता के पुरुष। जैसा कि राजेंद्र प्रसाद ने ठीक ही कहा है: “यदि चुने गए लोग सक्षम और चरित्रवान और सत्यनिष्ठ व्यक्ति हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वश्रेष्ठ बनाने में सक्षम होंगे। अगर इनमें कमी है तो संविधान देश की मदद नहीं कर सकता। आखिर मशीन जैसा संविधान एक बेजान चीज है। यह उन लोगों के कारण जीवन प्राप्त करता है जो इसे नियंत्रित करते हैं और इसे संचालित करते हैं और भारत को आज ईमानदार पुरुषों के एक समूह के अलावा और कुछ नहीं चाहिए, जिनके सामने देश का हित होगा।
संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है, क्योंकि लोकतंत्र में संसद का वही स्थान है, जो कि धर्म में भगवान का। हमारे संविधान निर्माताओं ने कहा था कि लोकतंत्र में प्रत्येक विचार का केंद्र बिंदु संसद ही है।
पूर्व सांसद हुकुमदेव नारायण यादव अपनी किताब 'संसद में आम जन की बात' में संसद किस तरह सबसे गरीब तबके के लोगों के लिए मंदिर बन सकता है पर चर्चा करते हुए लिखते हैं - "डॉ. लोहिया ने जाति प्रथा के लिए लिखा है कि लोग कहते हैं कि मूर्ख लोगों को, सभी लोगों को वोट का सामान अधिकार दे दिया है, यह उचित नहीं है। कभी-कभी मैं भी यह सोचता हूँ कि यह उचित नहीं है, लेकिन गंभीर चिंतन के बाद मुझे लगता है कि ये निर्धन, गरीब, दलित, पिछड़ी जाति के, अनुसूचित जाति के, जनजाति के जंगल में रहनेवाले लोग एक-न-एक दिन वोट की ताकत को जानेंगे और जिस दिन वे वोट की ताकत को पहचानेंगे, उस दिन अपने वोट की ताकत से भारत की सत्ता पर कब्जा करेंगे। भारतीय लोकतंत्र का इतिहास बदलकर रख देंगे। आज वह तबका जग गया है, उसने वोट की ताकत को पहचान लिया है, वह वोट के जरिए लोकतंत्र में अपनी हिस्सेदारी चाहता है, साझेदारी चाहता है। वह आज अपनी हिस्सेदारी और साझेदारी के लिए लड़ रहा है। मैं लोकतंत्र के मंदिर में खड़ा होकर कहना चाहता हूँ कि हमें आज भी तकलीफ होती है, जब यह कहा जाता है कि अनुसूचित जाति को इतना दे दो, अनुसूचित जनजाति को इतना दे दो, ओ. बी.सी. को इतना दे दो।
संसद में चंद्रशेखर - एक स्मारक खंड में भारतीय संसद के मंदिर होने की बात कई जगह दोहराई गई है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि भारत का एक स्वतंत्र देश होना ही काफी नहीं है, इसे धार्मिक, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से समतावादी देश बनाना आवश्यक है। स्वराज्य शासन की एक प्रणाली है जिसमें एक व्यक्ति वास्तविक परिप्रेक्ष्य में मानवीय रूप से रह सकता है। यद्यपि हम एक स्वतंत्र देश बन गए हैं, फिर भी समानता का अभाव है। लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में बहुत असमानता है और अगर हम इसे दूर करने की स्थिति में नहीं हैं तो कड़ी मेहनत से बना लोकतंत्र का यह मंदिर ढह सकता है। हमें अपनी पूरी शक्ति का उपयोग शोषण से रहित और समानता पर आधारित "आदर्श समाज" के निर्माण के सपने का अनुवाद करने में करना चाहिए।
मन में संसद का ख्याल आते ही यह भाव आता है कि यह ऐसा स्थान है जहाँ ओजस्वी वक्ताओं का जमावड़ा होगा, लेकिन पिछले कुछ दशकों से शायद ही कभी ऐसा देखने को मिला हो कि जब कोई ऐतिहासिक संसदीय चर्चा या बहस हुई हो। पहले संसदीय चर्चाएँ राष्ट्रीय और महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित होती थीं, लेकिन अब इनकी जगह संकीर्ण और स्थानीय मुद्दों ने ले ली है। नाममात्र की उपस्थिति, स्तरहीन चर्चाओं, सत्र के दौरान शोर-शराबे, ये भारतीय संसद के कुछ मौलिक पहचान बन गए हैं। ऐसे में हमें संसद की गरिमा और महत्त्व को बनाए रखना होगा। ध्यान रहे संसद नीतियों पर बहस और कानून निर्माण का स्थान है न कि राजनीति करने का। हमें इन सुधारों पर ध्यान देना होगा, ताकि हम भारत के जीवंत लोकतंत्र में संसद की भी जीवंतता बनाए रखे।
सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी
नई दिल्ली