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सृजन समूह शामली, उत्तर प्रदेश

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शनिवार, 23 जनवरी 2021

कील

  "मां चलें?" रोहित ने गाड़ी की चाबी खूंटी से उतार लिया।

"हां बेटा! चलो।"

तभी अंजना जी की नजर सलवार सूट पहने कमरे से बाहर आती बहू पर पड़ी।

उन्हें याद हो आया कि बहू अभी-अभी अपने कमरे में एक खूबसूरत टॉप के साथ ट्राउज़र में तैयार हो रही थी लेकिन अब वह हॉल में दुपट्टा ओढ़े शांत चित्त खड़ी खूबसूरत किंतु उसके चेहरे की रौनक दबाव तले तनिक कम लग रही थी।

रोहित के पिताजी पहले ही पार्किंग एरिया में जा चुके थे वैसे भी कॉलोनी में अपने खुद के घर में रहने वाले इंसान को बड़े शहरों के पिंजरानुमा फ्लैट के भीतर घुटन महसूस होती है। ऐसा उनका मानना है।

"बहू तुमने कपड़े क्यों बदल लिए?"

अंजना जी ने पानी का एक बॉटल अपने लार्ज साइज बैग में रखते हुए आखिर पूछ ही लिया।

"मां! पापा के सामने सूट-सलवार ही ठीक है।" पत्नी को बोलने का मौका दिए बगैर रोहित ने जवाब दिया।

"मतलब बहू की अपनी पसंद की कोई अहमियत नही है?"

"ऐसी कोई बात नहीं है माँ!"

"फिर क्या बात है?"

"मां! तुमने तो पूरी जिंदगी पांच गज की साड़ी में बिताया और बड़ों को इज्जत देने के लिए हमेशा सर पर पल्लू भी रखा, फिर इसमें पसंद को अहमियत न देने जैसी क्या बात हो गई ?"

"यहां बैठ! एक बात बताती हूँ।" अंजना जी ने बेटे को बैठने का इशारा किया।

"मां! देर हो जाएगी।"

"लेकिन अगर आज मैं यह बात तुम्हें नहीं बताऊंगी तो वास्तव में देर हो जाएगी।" अंजना जी के शब्दों की दृढ़ता से प्रभावित रोहित मां को देखने लगा।"बेटा! आज से लगभग तीस वर्ष पहले,.यानी तेरे जन्म से पहले,..एक बार तेरे दादाजी को भोजन परोसने वक्त मेरे सर से पल्लू सरक गया था।"

"इसमें कौन सी बड़ी बात हो गई?" रोहित अधीर हुआ शायद उसे चलने की जल्दी होने लगी।

"बेटा इसमें कोई बड़ी बात नहीं थी,. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह बहुत बड़ी बात थी।"

अंजना जी ने बेटे की आंखों में आंखें डाल कर उसे अपनी बात पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर कर दिया।

"ऐसा भी क्या हुआ था?" उसने अब पूरी बात सुन लेनी चाही।

"उस दिन भोजन समाप्त कर तुम्हारे दादा जी हाथ में एक कील और हथोड़ा लिए हमारे कमरे में आए थे।"

"क्यों?" रोहित आश्चर्य से मां का मुंह देखने लगा।

"उन्होंने वह कील और हथोड़ा तुम्हारे पिताजी के हाथों में देकर उसे मेरे पल्लू के साथ मेरे सर में ठोक देने को कहा था,.ताकि पल्लू कभी मेरे माथे से अलग ना हो सके।"

इतना कहते-कहते अंजना जी का गला भर आया था और पलकें आंसुओं को थामने में नाकाम होने लगीं। रोहित मां को एकटक देखता रहा।

"बेटा! तेरे पिताजी ने तो वो कील मेरे सर पर नहीं ठोका किंतु मैं उस अदृश्य कील के साथ जीती रही क्योंकि उसका प्रतिकार करने का साहस मुझ मे नहीं था।" मां की पूरी बात सुन रोहित मानो शून्य हो गया।

"बेटा! घर के बड़ों द्वारा परिवेश में आए बदलाव को स्वीकार करने से बच्चों के दिल में उनके प्रति इज्जत आती है, ना कि कपड़े बदलवा देने से और सर पर पल्लू रखवा देने से।"

अंजना जी बेटे का हाथ अपने हाथ में ले अपने दिल के जख्मों पर मरहम लगाने की गुजारिश करने लगी।

रोहित कुछ बोल नहीं पाया बस मां की आंखों में देखता रहा।

"बेटा! मैं नहीं चाहती कि मेरी बहू भी किसी अदृश्य  कील के साथ अपनी जिंदगी हमारे साथ बिताए।"

"मां! मुझे माफ कर दो। मैं आज तक समझ ही नहीं सका था उस बेतुके दबाव को क्योंकि अब तक मुझे यह सब एक औरत के लिए सहज लगता था।" रोहित की आंखें भर आई और वह अपने आंसुओं को छुपाता आज बड़े दिनों के बाद सहज भाव से मां के सीने से लग गया एक छोटे बच्चे के समान।

"तनु! मेरी इस गलती के लिए भले ही मुझे माफ मत करो लेकिन प्लीज तुम अपनी पसंद के कपड़े पहन लो।" रोहित ने पत्नी की ओर मनुहार से देखा।

"नहीं रोहित! मैं इन कपड़ों में कंफर्टेबल हूँ ।" तनु मुस्कुराई।

सास की बातों से शायद उसके भीतर का परिवेश भी अब कंफर्टेबल महसूस करने लगा।

                                                                                                  पुष्पा कुमारी "पुष्प"  पुणे, महाराष्ट्र 


                                                                    

 

 

 

 

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