अपनी बात

सृजन

नयी शिक्षा नीति रही है | बहुत सी अपेक्षाएँ हैं | आने वाला समय ही बतायेगा कि ये अपेक्षाएँ कहाँ तक पूरी हो पाती हैं | भारत में ज्ञान और शिक्षा की जो धारा विदेशी हमलों के समय टूट गयी थी वो आज तक नही फिर से नहीं जुड़ पायी | विदेशी शासनकाल बहुत लम्बा रहा | फलस्वरूप ज्ञान और शिक्षा का संचार पुन: कभी स्थापित ही नही हो पाया | नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को जला दिए जाने जैसी घटनाएँ भी इस प्रवाह को रोकने में छोटे-छोटे कारक सिद्ध हुई | प्राचीन भारत के पास एक सुदृढ़ भाषा विज्ञान था | तभी तो संस्कृत जैसी वैज्ञानिक और तार्किक भाषा हम भारतीयों के पास तब से थी जब विश्व का शेष भाग अपनी लिपि और ध्वनियों को विकसित करने में जूझ रहा था |

बहुधा अज्ञानी लोगो द्वारा यह तंज कसा जाता है कि भारतीय ज्ञान केवल धर्मशास्त्रों तक ही सीमित था | वस्तुत: ऐसा बिल्कुल भी नही था | हमारे तत्कालीन गुरुजनों को वर्तमान समय में प्रचलित ज्ञान की अनेक शाखाओं का समृद्ध ज्ञान था | वास्तुशात्र की बात करें तो आज भी भारत भर में उस समय के ऐसे-ऐसे निर्माण अभी भी देखने को मिल जाते हैं  जो कि आज के अत्याधुनिक मशीनों के युग में भी असम्भव प्रतीत होते हैं | पहाड़ को ऊपर से नीचे की और काटकर बनाया गया कैलाश मन्दिर इसका उदाहरण है | गणित पर भी उस समय बहुत कार्य किया जा चुका था | कालगणना और खगोलशास्त्र शास्त्र का भी उन्हें उन्नत ज्ञान था |

चिकित्सा के क्षेत्र में अगर धनवन्तरी, चरक और सुश्रुत आदि की परम्परा बिना रुके आगे बढ़ती गयी होती तो आज हम चिकित्सा विज्ञान के शिखर पर होते | आज हमे ऐसी शिक्षा नीति की आवश्यकता है जो हमारी प्राचीन ज्ञान परम्परा में दुनिया के नवीनतम से भी नवीनतम ज्ञान को समाहित करते हुए चले और मानवता के कष्ट और असन्तोष को दूर कर सके |



-जय कुमार


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